Tuesday, February 28, 2023

भारतीय कविता आंदोलनों के जन्मदाता : सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

(शैलेंद्र , प्रयागराज)

सूर्यकांत  त्रिपाठी निराला जी का आज 123वां जन्मदिन है ।आज ही अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस एवं बसंत ऋतु का दौर भी है।

हिंदी साहित्य के छायावाद के चार कवियों, जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत, महादेवी वर्मा के साथ सूर्यकांत जी प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने बंग्लाभाषी होते हुए भी हिंदी साहित्य की,और  गीत, कविता, कहानी, उपन्यास, निबंध आदि विधाओं में  रचनाएं सृजित कर छायावाद व परवर्ती काव्य आन्दोलनों के साहित्यकारों का मार्ग दर्शन किया।

सूर्यकांत जी का जन्म रविवार के दिन बंगाल की महिषादल रियासत, मिदनापुर में हुआ। रविवार के दिन पैदा होने के कारण उनका नाम सूर्यकांत रखा

गया। इतिहास में अंकित 1930 ई.को ही सूर्यकांत जी अपना जन्मदिन (बसंत पंचमी ) मनाते रहे हैं।

उनकी औपचारिक शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। हिंदी, संस्कृत, साहित्य संबंधी ज्ञान उन्होंने स्वयं से अर्जित किया।उनका जीवनकाल दुख की सरिता के समान रहा।तीन वर्ष की आयु में मां का गुजर जाना,20 वर्ष की आयु में पिताजी का गुजर जाना और परिवारिक उत्तरदायित्व का पहाड़ टूट पड़ना आदि परिस्थितयों को उन्होंने साहस से झेला। प्रथम विश्व युद्ध के पश्चात फैली महामारी के दौरान पत्नी मनोरमा देवी,चाचा,भाई और भाभी के गुजर जाने से उनके जीवन में जैसे वेदना अभिन्न अंग सी बन गयी।इसके बावजूद उन्होंने अपने कुनबे, संयुक्त परिवार की जिम्मेदारी पूर्ण लग्न से निभाई और अभाव की परिस्थितियों का डटकर सामना किया और वेदना के यथार्थ को सहर्ष स्वीकार किया।

अपनी पत्नी के आग्रह पर उन्होंने हिंदी में लिखना शुरू किया। दुखों से संघर्ष करते करते और उत्साह से आगे बढ़ते हुए, रूढ़ियों से मुकाबला करते हुए अपने बलबूते पर वह हिंदी साहित्य में निराली प्रतिभा के धनी महाप्राण कहलाए। प्रारम्भिक काल  में वे अनुवाद भी रहे हैं। आगे चलकर संपादक भी रहे। 1930 में प्रकाशित अपने कविता संग्रह 'परिमल' की भूमिका में उन्होंने लिखा है

" मनुष्य की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छंदों के शासन से अलग हो जाना है।"

हिंदी साहित्य में सूर्यकांत जी मुक्तछंद के प्रवर्तक माने जाते हैं और कविता में व्याकरण और छंद अलंकारों से छुटकारा पाने के लिए आंदोलित हो उठे।

सूर्यकांत जी ताउम्र संघर्षरत रहे व संघर्ष के पथिक एंव पक्षधर रहे। इस प्रकार उनके जीवन में सहे आक्रोश, विद्रोह से, व्यक्त करूणा और प्रतिबद्धता के भावों से हिंदी साहित्य समृद्ध हुआ है। संघर्ष से उन्होंने ज्वलंत जीकर दिखाया है

और हर चुनौती पर जीवटता दिखाने में कभी पीछे नहीं हटे हैं और अपने प्रयासों में कोई कसर नहीं छोड़ी है। छंदमुक्त रचनाओं के सृजन के कारण वे उस आधुनिक काल के तथाकथित रूढ़िवादी साहित्यकारों के खेमों के शिकार हुए लेकिन एकला चलकर,अपने अभियान को आन्दोलन में बदलने में विजयी हुए और अपनी आलोचनाओं को उन्होंने स्वीकार कर और अधिक यथार्थवादी रचनाओं से पुरजोर उत्तर दिया।

मातृभाषा बंग्ला होते हुए भी उन्होंने दारागंज इलाहाबाद,आज प्रयागराज को अपना कर्मस्थली बनाया और हिंदी साहित्य की शिद्दत से सेवा की। उनकी पहली रचना 'जन्मभूमि' है हालांकि  'जूही की कली' कै भी समकालीन विद्वान जन उनकी पहली कविता मानते हैं।

सूर्यकांत जी को उनकी अलग शैली,भावों, विषयों, दिशाओं में लिखने की विधा होने के कारण ही उन्हें निराला उपनाम दिया गया है। उनके काव्यों में यथार्थ और गंभीर दर्शनशास्त्र के दर्शन होते हैं। उन्हें ज्ञानपीठ पुरस्कार से भी नवाजा गया।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला जी आजके जीवन में उतने ही प्रसांगिक हैं जितने वह उस समय रहे। उन्होंने दुख सहा है,दुख की अनूभूति को अपने सरल सहज शब्दों में पिरोया है और अपने जीवन में जिया है।

संयुक्त परिवार, उत्तरदायित्व, अपनी पत्नी,अपनी बेटी की शादी और अपने कुनबे से जुड़कर उन्होंने रुढ़िवादी दकियानूसी विचारधाराओं एंव परंपराओं पर जमकर प्रहार किया है व हिंदी साहित्य को झंझकोर कर रख दिया है। रूढ़ीवादी छंदों, अलंकारों और व्याकरण के नियमों से मुक्ति दिलाई है। वे हमेशा साहसी रहे, विद्रोही रहे, संवेदनशील होकर करूणा के पुजारी रहे हैं। उनके व्यक्तित्व में मानवता कूट कूट कर भरी है। उन्होंने हर प्राणी की वेदना को अपना माना है और उसके निवारण हेतु यथासंभव प्रयास किया है। साहित्य में उनकी दरियादिली और फक्कड़ प्रवृत्ति के अनगिनत उदाहरण उनकी रचनाओं, समीक्षाओं और उनपर लिखी टीकाओं में उल्लेखित हैं एंव अंकित हैं।

सूर्यकांत त्रिपाठी जी अपने व्यक्तित्व व व्यवहार के आधार पर  निराला और महाप्राण की उपाधि पाई है और वे इसके पूर्ण रूप से हकदार हैं।

शैलेंद्र



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