ऊपर बैठे आकाश ने भी उनकी हां में हां मिलाई। हवा, पानी, ज़मीन बोले, तुम तो मज़े में हो भई, इंसान के हाथ तुम तक नहीं पहुंच सकते।
आकाश ने अपने दिल में हुआ बड़ा सा छेद दिखाते हुए कहा, तुम्हें शायद मालूम नहीं कि इंसान के स्वार्थ की लपटें कितनी ऊपर तक पहुंच रही हैं।भट्टी में धू –धू जल रहे हैं पुतले, किसी दिन इन्हीं लपटों का शिकार हो जाएगा वह। खतरे का बिगुल बज रहा है और काला धुआं फैलता जा रहा है।
पानी के चेहरे पर उदासी की लकीरें साफ़ दिखाई दे रही थीं। हवा ने पूछा–क्या बात है भाई? मेरा दर्द बहुत पुराना है–पानी बोला ,बरसों से इंसान मेरा खून चूस रहा है।वह जल–भक्षी हो गया है, इतना स्वार्थी कि मेरे शरीर की आखिरी बूंद तक निचोड़ लेना चाहता है।अब और बर्दाश्त नहीं होता।
पानी की दुःख भरी कहानी सुन कर हवा की आंखें भीग गईं –मेरी भी दास्तां कुछ ऐसी ही है भाई।
तन –मन छलनी, शरीर पर फफोले पड़े हैं और एक वह है जो मुझे तबाह करने के लिए नित नए तरीके ईजाद करता मुझ पर कालिख पोत रहा है। मैं मुक्त होते हुए भी उसकी कैद में हूं।ज़मीन भी बगल में बैठी उनकी व्यथा–गाथा सुन रही थी। उसे लगा जैसे किसी ने उसकी दुःखती रग पर हाथ रख दिया हो। बड़ी हिम्मत कर बोली–हवा बहन!कहने को मेरे पास बड़ी–बड़ी इमारतें, फाइव स्टार होटल, शापिंग प्लाज़ा और बहुत कुछ है, लेकिन मैं खुल कर सांस भी नहीं ले सकती। मेरा सारा परिवार इंसान के जुल्म का शिकार है।जंगल, जानवर, हरियाली, वनस्पतियों का कत्लेआम हो रहा है। एक ही चिंता मुझे दिन–रात खाए जा रही है, मेरे बाद मेरे बच्चों का क्या होगा!
प्रकृति की आर्तता- दु:खदाई व्यथा इस समस्त सुख देने वाली मही की, बहुत सुन्दर लेखन और एक चेतावनी भरा संदेश। अभिनंदन आपका सुजाता जी
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