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सुजाता |
एक आम ग्रामवासी के मुख से सुनिए –
ईश्वर/मेरे दोस्त/मेरे पास आ/यहां बैठ/बीड़ी पिलाऊंगा/चाय पीते हैं । सादगी की यह झलक उनकी और भी कविताओं में मिलती है–‘एक आदमी होता था’ की कुछ पंक्तियां हैं पहले एक पहाड़ होता था/एक आदमी होता था/लेकिन आदमी इतने ज़ोर से बहा /कि नदी सो गई।
‘भोजवान में पतझड़’ में कवि की मानवीय संवेदनाओं का विस्तार झलकता है– लेटी रहेगी एक कुनकुनी उम्मीद/मेरी बगल में/एक ठंडी मुर्दा लिहाफ के नीचे/कि फूट जाएंगी कोंपले/लौट आएगी अगले मौसम तक/भोजवन में जिंदगी।
आदिवासी बहनों के लिए लिखी कविता ‘ब्यूंस की टहनियों ’ में यही संवेदना औरत के प्रति है –जो जितना दबाओ झुकती जाएंगी/जैसा चाहो लचकाओ लहराती रहेंगी/जब सूख जाएंगी कड़क कर टूट जाएंगी।
क्या स्त्री– पुरुष बराबर हैं? क्या सच है कि औरत सामाजिक और आर्थिक शोषण का शिकार नहीं? यह कविता ऐसे कई सवालों पर और बड़ा सवाल खड़ा करती है।
एक संवेदनशील प्राणी होने के नाते कवि की चिंता यह भी है कि पहाड़ ढलान दर ढलान गिरता जा रहा है।एक बच्चे की प्रार्थना के माध्यम से उसे यह उम्मीद है–कि खूब कस कर रखूं /अपने पहाड़ को/अपनी नन्हीं मुट्ठियों में
मां के लिए लिखी कविताएं ‘आज जब वह जा रही है ’ और ‘ तुम्हारी जेब में एक सूरज होता था ’ संग्रह की प्रभावशाली कविताएं हैं।
अपनी पीड़ाओं और संघर्षों के साथ/वह कितनी अकेली थी। कहां शामिल था खुद मैं भी/ उस तरह से /उस के होने में/जिस तरह से इस अंतिम यात्रा में हूं। कवि को मलाल है कि जीते जी वह मां को इतना वक्त नहीं दे पाया। उस के दुनिया से चले जाने पर आए खालीपन को बयान करती है यह कविता। तुम्हारी जेब में एक सूरज होता था ’ में मां का चालू और बास्केट देख कर शिद्दत से उसे याद करता है–मैं तुम्हारी छाती से चिपका/तुम्हारी देह को तापता/एक छोटा बच्चा हूं/ मां मुझे जल्दी से बड़ा हो जाने दे/मुझे तुम्हारी सब से भीतर वाली जेब से/चुराना है एक दहकता हुआ सूरज/और भाग कर गुम हो जाना है।सच में मां तो मां होती है, जो कभी अतीत नहीं होती।
अजय अपने कवि धर्म के प्रति जागरूक हैं। ‘एक नदी जिसे हम पीना चाहते हैं ’ में देखिए–
हमें चाहिए एक नदी/ एक नदी उस में तैरने के लिए/एक नदी उस में डूब जाने के लिए।इस चिलचिलाते समय में कवि को एक नदी की तलाश है,जिस में डुबकी लगा जीवंत हो सके, तरोताजा हो सके।
इसी तर्ज़ की एक और कविता है–‘चूक गए कितनी ही नदियां ’
एक नदी हमारे भीतर रहती है–पारदर्शी नदी,जिस की कोई आवाज़ नहीं/हमारे अंतकरण को धो डालती है।
भीतर उगा हुआ आदमी ’ में कवि भीतर के आत्म तत्व से रू –ब –रु होता है,गहराई में उतर कर आत्म साक्षात्कार भी करता है।
जीवन की आपाधापी के बीच सांसारिक जीवन जीते हुए लगता है कि कवि को कुछ ‘और ’ की तलाश है। ‘बुद्ध न हो पाना ’ इसी तलाश को व्यक्त करती है।
पहाड़ कवि के अंदर – बाहर बसा हुआ है।कहीं पहाड़ों से बातें होती हैं,कहीं पहाड़ी खानाबदोशों के गीत गूंजते हैं,तो कहीं पहाड़ अपने रहस्य खोलते हैं।
कवि अजय बुद्ध बने भीतर की यात्रा पर चल पड़ते हैं,नाना अनुभव लेते हुए अपने ही नज़रिए से धरती को देखना चाहते हैं– ‘अपनी आंखों से देखता हूं ’ कविता में कहते हैं –लौटाता हूं ये चश्मे तेरे दिए हुए.
वह अनुभव करते हैं– ‘आप के भीतर से सच्ची आवाजें आती रहती हैं ’ ।कोई भी अपने भीतर की आवाजों को नज़र अंदाज़ नहीं कर सकता। भीतर का दर्पण उसे सही गलत का अक्स दिखाता ही रहता है।
‘इस आदमी को बचाओ ’ में भी तो कवि यही कहना चाहता है। इस आदमी के माध्यम से उन्हें जिजीविषा की तलाश है–इस आदमी में इस धूसर धरती का आखिरी हरा है/कि इस आदमी में हारे हुए आदमी का आखिरी सपना है।
सभ्यता के मलबे में धराशाई यह आदमी बुरी तरह कुचला गया है,जिसे बचाने की ज़रूरत है।
आलोचना की दृष्टि से देखें तो अजय जी की लंबी कविताएं कम प्रभाव डालती हैं।कुल मिला कर उनकी कविताएं घर आंगन से उड़ान भरती हुई लंबा सफ़र तय करती हैं।कवि खुद कहता है कि इन्हें आंगन की खूंटियां से नही बांध सकता।
नए प्रयोगों से भरी पहाड़ों से मैदानों तक अपनी खुशबू बिखेरती इन कविताओं का स्वागत है।
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