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सुजाता |
एक आम ग्रामवासी के मुख से सुनिए –
ईश्वर/मेरे दोस्त/मेरे पास आ/यहां बैठ/बीड़ी पिलाऊंगा/चाय पीते हैं । सादगी की यह झलक उनकी और भी कविताओं में मिलती है–‘एक आदमी होता था’ की कुछ पंक्तियां हैं पहले एक पहाड़ होता था/एक आदमी होता था/लेकिन आदमी इतने ज़ोर से बहा /कि नदी सो गई।
‘भोजवान में पतझड़’ में कवि की मानवीय संवेदनाओं का विस्तार झलकता है– लेटी रहेगी एक कुनकुनी उम्मीद/मेरी बगल में/एक ठंडी मुर्दा लिहाफ के नीचे/कि फूट जाएंगी कोंपले/लौट आएगी अगले मौसम तक/भोजवन में जिंदगी।
आदिवासी बहनों के लिए लिखी कविता ‘ब्यूंस की टहनियों ’ में यही संवेदना औरत के प्रति है –जो जितना दबाओ झुकती जाएंगी/जैसा चाहो लचकाओ लहराती रहेंगी/जब सूख जाएंगी कड़क कर टूट जाएंगी।
क्या स्त्री– पुरुष बराबर हैं? क्या सच है कि औरत सामाजिक और आर्थिक शोषण का शिकार नहीं? यह कविता ऐसे कई सवालों पर और बड़ा सवाल खड़ा करती है।