Saturday, February 12, 2022

सुजाता की दो कविताएँ



वृक्ष का रोमांच


मां चली गई तुम

पर जाते जाते

कई रिश्तों, रस्मों, रहस्यों से

पर्दे उठा गई

तुम्हारे जाने भर की देर थी

उम्र की कितनी सीढियां चढ़ गई मैं

_तैरना था संबंधों के ताल    मेंजलजीवों की कचोट से बचते हुए

चलना था सड़क के बीचों बीच

खुद को बचाते हुए

असीम आकाश में उड़ना था

अकेले_निसंग


_एक पत्ता

कब टहनी से गिर गया

देख रही वृक्ष का रोमांच

एक बूंद

सहसा पत्ते से टपक पड़ी

कह रही मूक वृतांत


_तुम्हारे बाद

और गहरे ही गए चीज़ों के रंग

पारदर्शी पानी में झलकने लगे

रंगों के तहदार अर्थ

पेड़ों, पत्तों, शाखाओं में से दर्द की हवा बह चली

एक बहती नदी

उतर गई मेरे भीतर

दर्द और दवा पर्याय हो गए थे


_उम्र की कुछ और सीढियां चढ़ने के बाद

मुझे वृक्ष को समूचा निहारना था

बसंत तो कभी

पतझड़ की आंख से.



त्यौहार के बहाने


आज त्यौहार का दिन है

देवताओं का दिन

देवता पधारेंगे आज

बैठेंगे हमारे संग

बातें करते, सुख दुःख बांटते पूरे घर में फैल जाएंगे

न्यौतने को उन्हें

किया होगा साल भर इंतजार

बुहारा होगा घर आंगन

जुटाए होंगे बंदनवार


दिन भर की गहमागहमी के बाद

देव पाहुने

लौट जाएंगे आकाश मार्ग से

साथ ही उनकी छायाएं

मिलेंगे फिर मनौतियों में

कहानियों या पहेलियों में


देवताओं का यूं आना

हमारी खुशियों में शरीक होना

गवाह है

धरती पर अच्छाई शेष है अभी।


 

No comments:

Post a Comment

रीतू कलसी की कुछ कविताएं

  हम और तुम भले चाहें  युद्ध न हों पर युद्ध होंगे  और मरना किसे  इस युद्ध में यकीनन हमको तुमको नेता आए,नेता गए  दर्ज हुआ युद्ध इतिहास मे तो ...