वृक्ष का रोमांच
मां चली गई तुम
पर जाते जाते
कई रिश्तों, रस्मों, रहस्यों से
पर्दे उठा गई
तुम्हारे जाने भर की देर थी
उम्र की कितनी सीढियां चढ़ गई मैं
_तैरना था संबंधों के ताल मेंजलजीवों की कचोट से बचते हुए
चलना था सड़क के बीचों बीच
खुद को बचाते हुए
असीम आकाश में उड़ना था
अकेले_निसंग
_एक पत्ता
कब टहनी से गिर गया
देख रही वृक्ष का रोमांच
एक बूंद
सहसा पत्ते से टपक पड़ी
कह रही मूक वृतांत
_तुम्हारे बाद
और गहरे ही गए चीज़ों के रंग
पारदर्शी पानी में झलकने लगे
रंगों के तहदार अर्थ
पेड़ों, पत्तों, शाखाओं में से दर्द की हवा बह चली
एक बहती नदी
उतर गई मेरे भीतर
दर्द और दवा पर्याय हो गए थे
_उम्र की कुछ और सीढियां चढ़ने के बाद
मुझे वृक्ष को समूचा निहारना था
बसंत तो कभी
पतझड़ की आंख से.
त्यौहार के बहाने
आज त्यौहार का दिन है
देवताओं का दिन
देवता पधारेंगे आज
बैठेंगे हमारे संग
बातें करते, सुख दुःख बांटते पूरे घर में फैल जाएंगे
न्यौतने को उन्हें
किया होगा साल भर इंतजार
बुहारा होगा घर आंगन
जुटाए होंगे बंदनवार
दिन भर की गहमागहमी के बाद
देव पाहुने
लौट जाएंगे आकाश मार्ग से
साथ ही उनकी छायाएं
मिलेंगे फिर मनौतियों में
कहानियों या पहेलियों में
देवताओं का यूं आना
हमारी खुशियों में शरीक होना
गवाह है
धरती पर अच्छाई शेष है अभी।
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