Saturday, February 12, 2022

कवियाएँ :- अदिती राणा जम्बाल

 

मजदूर 

आसान नहीं है मजदूर होना

फुटपाथ पर बोरियां ओढ कर सोना।

पत्थरों के महल बनाना

पर खुद का सर ढकने के लिए छत के लिए तरसना ।


लोगों के खाबों को पूरा करने बाला रचयिता बनना

मगर खुद की दो वक़्त की रोटी के लिए मोहताज होना।

हर चीज में अपना पसीना लगाना

फिर भी बिन पैसे बिन रोटी के रह जाना।


पेट की आग के लिए गांव से जाना

अपनो की खातिर अपनो से दूर रहना।

भूखे पेट चलना

रास्ते लम्बे कदम का इतना छोटा होना।


हर लम्हे का जैसे जंग जैसा होना

आसान नहीं बडा मुश्किल है मजदूर होना।

ऐ खुदा हक की रोटी खाने बालों को

इतना बेबस ना करना,इतना मजबूर ना करना।



दिल का दिया 


तेरे दिल का दिया 

काफ़ी है रौशनी के लिए 

बन जा खुद का कुम्हार 

आज अपने लिए एक दिया घड़ ले।


छोड कोसना अंधरे को

इसमें उम्मीद की रौशनी जला दे

बन जा जुगनू ना तक दूसरे को

अपने उजाले के लिए ।


अँधेरा गहरा सही 

डर लगे तो बंद कमरे में रो ले

नाउम्मीद ज्यादा अच्छी नहीं 

चल उठ,हर कोने में अब उजाला कर दे।


कह दे अंधेरों  से

उनका ठिकाना अब यहाँ नहीं 

मेरे दिल का दिया अब जल गया

कई आंधियो पे भारी रहेगा ,चिराग अब यही।


उलझा हुआ हूँ मैं 


उलझा हुआ हूँ 

कुछ सुलझाने में 


अपनो को मनाने में 

नाराज चेहरो को हँसाने में 


कुछ सवालों के जवाब में 

उन जबाबो की कशमकश में 


अनकहे अल्फाज़ो में 

उन अल्फाज़ो के माइने में


अपने हाथों की लकीरों में 

उन लकीरों में छिपी तकदीरो में 


जिंदगी एक पहेली सी

इस पहेली को सुलझाने में 


हाँ, उलझा हुआ हूँ मैं 

शायद खुद को ही सुलझाने में ।



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