Wednesday, October 6, 2021

शोषिआत गुस्तामोव की कुछ कवियाएँ

शोषिआत गुस्तामोव उज्बेकिस्तान की  चर्चित कवित्री है जिसका जन्म 1971 में हुआ और उसने 'यूनिवर्सिटी ऑफ हाईअर लिटरेचर' से जर्नलिज्म की डिग्री प्राप्त की। इस समय वह उज्बेकिस्तान के एक समाचार पत्र में मुख्य संपादक के तौर पर काम कर रही हैं।
द हाउस इन द स्काई, रेस्कयू, द मैन्टल, और सम्पादना की अनेक चर्चित पुस्तकें उसके द्वारा रचित हैं। उसने कई देशों में हुए साहित्य सम्मेलनों में न सिर्फ भाग लिया है बल्कि अअन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेक इनाम-सम्मान भी प्राप्त किए हैं।


छोड़ रही हुँ ये रास्ते
यह रोज़-रोज़ की भागदौड़
जैसे किसी चित्रकार की कलाकृत से
झलक रही हो थकान

यह मेरी सोच का पक्षी है
य शायद
मेरी माँ का दूध है
जो मुझे लौट आने को 
कह रहा हो।

किसे दोष दूँ, शिकायत करूं
उन पलों की,
जो चले गए।
बीते समय की कसक ही है
कविता की सारी पीड़ा।

अस्थायी बसेरा
जब मैं आऊँ फिर से   

तो क्या सबब हो आने का

मैं थरथराती रही बहुत
समंदर से बाहर आती लहरों जैसे
बिखर गई संसार की भव्य चमक में

जिंदगी है अस्थायी बसेरा
चीन देश में भर्मण कर रहे
एक घमक्कड़ की तरह।

जब मैं यहाँ से जाऊं
बहुत वर्ष बीत चुके
तुम कहाँ चले गए?
तुम्हारा सपना बहुत धुंधला लम्बा है

तुम जब भी इधर से गुजरे
क्यों न खटखटाया मेरा दर
अब शायद हमेशा के लिए
मैं यहाँ से हो जाऊं विदा
पर तुम पहले की तरह
मेरी ज़िंदगी मे बने रहना

दरवाजे पर खड़े
हाथ हिलाते और शुभकामनाएं कहते
फिर से लौट आने के लिए।

काँपती है आत्मा की खिड़की
अचनचेत आता है
हवा का झोंका
और धीरे से चला जाता है
खिड़की के शीशे
भरते रहे ठंडी आंहे।

पीछे छोड़ जा चुकी हवा
ले गई है मेरे दिल को साथ

ये कौन से मोड़ो से गुज़रेगी
कौन जाने किन किन मोड़ो से
ले उड़ेगी मुझे, 
कहीं यह जाने-पहचाने मोड़ तो नहीं

अचनचेत उड़ गई अनिश्चितता
जैसे गायब हो जाए अचानक धुन्ध
अब नही है बीत चुका कुछ

फिर से चाँद और दरख़तों ने देखा
मेरा उमड़ा हुआ प्यार।
सुनहरी किरणे दिखाती रास्ता
धरती अनन्त थी और
यहाँ तक मैं जा सकती थी गई

कितना साफ है मन
काँपती है आत्मा की खिड़की
मेरी पहुँच से थोड़ा परे
बस तुम ही तो थे
जो रह गया मेरी शोह से परे।

खाली बेकार फलियां
कई बार आती हुई हवा
मुड़ जाती है अचानक
उल्टे रुख
आँखों में लिए थकी हारी उम्मीद

जैसे कच्चा गिरा हुआ फल
सूखा हुआ जल का श्रोत

खत्म होती है उम्मीद
जैसे पतझड़ की सूख रही 
खाली बेकार फलियां।
                   अनुवाद: जतिन्द्र औलख
(Translate by: Jatinder Aulakh
poetaulakh@gmail.com)

No comments:

Post a Comment

रीतू कलसी की कुछ कविताएं

  हम और तुम भले चाहें  युद्ध न हों पर युद्ध होंगे  और मरना किसे  इस युद्ध में यकीनन हमको तुमको नेता आए,नेता गए  दर्ज हुआ युद्ध इतिहास मे तो ...