Saturday, February 24, 2018

जिज्ञायासा खरबंदा,

जिज्ञायासा खरबंदा, शिक्षा : दसवीं (अध्ययनरत), सम्मान : ’सक्सेसर ऑफ फ्रीडम फाईटर एसोसिएशन’ एवं ’आचार्यकुल चण्डीगढ़’ द्वारा सम्मानित। अन्य : मंथन साहित्यिक संस्था चण्डीगढ़ की सदस्य। राष्ट्रीय कवि संगम, चंबा में सम्मिलित। अखिल भारतीय हिंदी.उर्दु कवि सम्मेलन में शामिल। एन.बी.टी. की पत्रिका में कविता प्रकाशित। दूरभाष : 9872221465
जिज्ञायासा खरबंदा,
कविता


अध्यापक
वह बहुत समझदार है।
उसे किताबें पढ़ना नहीं आता
पर,
वह लागों को,
अच्छे से पढ़ लेता है;
एक वक्त ही रहा उसका
बिन-माँगा, अनचाहा 
अध्यापक!

ऐतिहासिक मंथन
म्ेरे देश के भविष्य
और मेरे देश के इतिहास

की संधि 
की गवाह
मेरी इतिहास की पुस्तक
झूठी है।
बेशक इसमें गढ़ी हुई
तारीखें और नाम
सच्चे हैं,
परंतु किस्से हैं
कई झूठे
कई अधूरे।
मेरे देश के भविष्य को
उसके इतिहास से
रू-ब-रू कराती,
उसका बखान करती
मेरी यह किताब
मात्र एक विडंबना है;
है एक करारा व्यंग्य।
आज इसकी 
सबसे बड़ी आवश्यकता
पठन नहीं
मंथन है
जो इसमें रमें
ज़हर और अमृत
का कर दे विच्छेद।
हमारे इतिहास को अर्पित
हो जाना चाहिए यह अमृत 
ताकि उसकी अमरता
केवल पुस्तकों तक सीमित न हो।
और ज़हर?
ज़हर तो ज़हर है
ज़हर मिट जाएगा
क्योंकि ज़हर नहीं होता 
अमृत।

हिंदी
यह कलयुग ही है हिंदी के लिए
जो अपने ही घर में
अपनों द्वारा 
ज़लील की जा रही है,
हिंदी ‘डमेस्टिक वायलेंस‘ का 
शिकार हो गई है,
इसे गर्व से बोलने वाली पीढ़ी
अब जो गवार हो गई है।
अँग्रेज़ी में शायद 
गुरुत्वाकर्षण बढ़ गया है,
जो हर उम्र, हर इलाके के लोग
खिंचे ही चले आ रहे हैं इसकी ओर,
हिंदी बोलना अब ’अनकूल’ 
हो गया है  
हर कोई जो पाश्चात्य के
अनुकूल हो गया है।
आज की युवा पीढ़ी पर तो, 
तरस आता है,
जो न स्वीकार कर पाई 
अपनी मातृभाषा को 
और न ग्रहण कर पाई
भाषा कोई अन्य, 
यह युवा पीढ़ी वाणी से ’इनकेपेबल’
हो गई है,
इनकी मानसिकता जो निर्बल हो गई है।
हिंदी एक अद्वितीय विचार है
जिसमें सम्मिलित है विज्ञान भी,
हमारी सोच की जान भी,
भारत की शान भी,
हमें एक ’रेवल्युशन’ की आवश्यकता है
अभी भी समय है
नज़ारा बदल सकता है।

मकड़जाल
उस धूलभरे अँधेरे कमरे में
दरवाज़े के ठीक उस पार 
वाली दीवार
पर था 
सिलसिला मकड़जालों का।
यह आज की दुनिया के 
वही मकड़जाल हैं
जहाँ शिकार बनता नहीं
बनाया जाता है
करने के लिए और शिकार।
जी हाँ!
टपनी भूख.प्यास परे रख
पल दर पल
शिकारी करते हैं शिकार
शिकारियों का।
एक नया नवेला 
उस मकड़जाल की भव्यता
के दृष्टिभ्रम को अनुभव करता है
देख उसे उस पारदर्शी दरवाज़े से;
पारदर्शिता, जो एक मतिभ्रम है।
वह फँस जाता है,
और फँसने के ठीक बाद
उसका दृष्टि तथा मतिभ्रम टूट जाता है।
उसका अस्तित्व
और वो 
डँसा जाता है
सदा के लिए 
उस मकड़जाल में।

                                                                            मेघला जुलाई- सितंबर 2017 अंक से

No comments:

Post a Comment

रीतू कलसी की कुछ कविताएं

  हम और तुम भले चाहें  युद्ध न हों पर युद्ध होंगे  और मरना किसे  इस युद्ध में यकीनन हमको तुमको नेता आए,नेता गए  दर्ज हुआ युद्ध इतिहास मे तो ...