आनंद
अजब अनूठी... मीठी
सिहरन सा... वो दिन
निराला होता है
जब पंछी के कलरव सी
विरल अभिव्यक्ति
कलम की नोक पर
आ बैठती है...
सूरज के उगते प्रकाश संग
रंग-बिरंगी आस्थाओं की अल्पना
घर द्वार
सजा देती है!
लगता है... ग्राम परिवेश
मानस के आकाश को
अपनी सुरम्यता से
आच्छादित कर देता है...
शनैः शनैः
असमानताएं!
असहजताएं!
आहत भावनाएं
कहीं गुम होने लगती हैं।
शब्दों के भीतर की
स्पर्श गाथा
एक आनंद बन जाती है...
देखते ही देखते
कागज पर
कविता उतर आती है!
जीवन
जीवन कविता हैं
जिसे में जीती हूं
तुम जीते हों।
अलग अलग शब्द लिये होती है...
हमारी कविताएं,,,
शब्द तो जन्म लेने से पूर्व ही
अन्तसः के भावसागर में
गोते लगा रहे होते है।
धीरे धीरे शब्द अपनी यात्रा पर
निकल पडते है...
बन जाती है कविता...
जिसे में जीती हूं... तुम जीते हों!!
अक्सर कविता सृजन की आपार संभावनाओं को
संजोकर/मेंरी देह से लिपट जाती है...
उंतग शिखरों से उतरती जलधारा को
अपने भीतर सहेंज कर रखती है।
शब्दों की माला
कभी मुस्कुराहटों से खेलती हैं।
कभी तन्हाइयों में उदासियों को पीती हैं।
कभी शब्दो की कड़ियां/उलझती है।
हमारे संग
कभी दुलारती... पुचकारती हैं...
ऐसी कविता मैं किसे सुनाउं।
यहां विड़बनाओं और असहनताओं का
सजा हैं बाजार। हिंसा का यथावह तांडव है...
ऐसे में मेरी कविता अपलक ताकती हैं मुझे
बोलती कुछ नहीं। एक शब्द भी नहीं...
क्या तुम्हारी भी कविता मेंरी कविता
की तरह इन दिनों यथाभीत हैं।
नदी.....
. नदी अपने वेग से बहती जा रही थी....
बालखाती, चंचल...
अपनी गति देख
आगे बढ़ती जा रही थी.....
अंतरात्मा से आवाज़ आई
कहाँ जा रही हो? ....
सागर से मिलने? .....
नही...
मै सागर मे कभी न जाउंगी.....
मेरा अपना भी तो कोई स्वतंत्र अस्तित्व है
... सागर ने नदी को देख
अपनी दोनों बाहें फैला दी....
आओ!!!!!.....
नदी सागर मे विलीन हो गई....
अच्छी कविताएं
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