Saturday, April 23, 2022

कविताएँ : अरतिंदर संधू

 

कुदरत के रंगों का जलाल था 

बराबरी थी,एकरसता थी 

पेड़ थे,बूटियाँ थी

स्थान था हरेक वस्तु का

कुदरती रचना थी 

नर और मादा होने की

बिलकुल उतने ही बराबर थे सब

जितना बराबर था होना उनका 


मनुष्य का आना धरती पर

ले कर आना था 

विशेष क़िस्म की समझदारी 


समझदारी ने की कुछ बाँटें 

निश्चित किये स्थान 

सब जीव निर्जीव वस्तुओं के

बंट गया तथ्य होने रहने का

नर और मादा होने में 

जैसे बड़ा पहाड़ और छोटी पहाड़ी 

आसमान नर और धरती मादा 

बड़ा होना नर 

और  और छोटा होना मादा हुआ 


चला यह सिलसिला ऐसे 

ग्रंथ नर और पोथी मादा हुई

अनाज नर और रोटी मादा 

भजन नर और भक्ति मादा 

सूर्य नर और धूप मादा 

चाँद नर और चाँदनी मादा 

बादल नर और बारिश मादा 

घर नर और घरेलू मादा 

यानि करता होना नर था 

उसका स्थान ऊपर का हो गया 

जननी तो औरत भी थी 

पर 

सेवा मादा और मेवा नर 

नम्रता मादा और अहंकार नर

में से गुज़रते हुए 

रब्ब नर और आत्मा मादा हुई 

धरती के सारे मर्द नर

प्रभु की जाति हुए 

प्रभु की सेवा ,भक्ति,श्रद्धा में 

लीन आत्मा ही होने लगी परवान 

…निश्चित हुआ

स्थान औरत का यूँ 



बंदे का वास्तु 


वास्तु वाले कहते हैं

फटे पुराने,उधड़े 

या रफ़ू किये

कपड़े मत पहनो


तरेड़ों वाले,टूटे किनारों वाले

कप प्लेटें मत बरतें


बंदा ऐसे कर भी ले

पर अपने आप का क्या करे


समय


सुना था 

समय गुज़र जाता है


पर समझा तब

जब सारा समय

मेरे बीच में से गुज़रा


जंगल का क़ायदा

 जंगल में 

कोई नहीं मारता किसी को

किसी और रंग

या आकार का होने की वजह से

माँसाहारी या शाकाहारी होने की वजह से

या किसी और जानवर का

माँस खाता होने की वजह से

या कहीं बैठ कर

दो बातें कर लेने की वजह से

 

ना सिंह या बाघ

भागते हिरणियाों के पीछे

ख़ास तरह की भूख की वजह से

वहाँ तो फलते मन के सौदे !

 

सभ्यक जो नहीं हुआ

जंगल अभी



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