Wednesday, March 2, 2022

कविताएँ: स्मृति रंजन महान्ति

स्मृति रंजन महान्ति, श्री राज किशोर महान्ति और शान्तिलता महान्ति के सुपुत्र, 1/1/1963 को ओडिशा के जगतसिंहपुर जिले के पदमपुर में जन्मे, एक बहुभाषी कवि, निबंधकार और लेखक हैं जो 'पेंटासी बी वर्ल्ड फ्रेंडशिप पोएट्री' के उल्लेखनीय कवियों में सम्मिलित हैं। उनकी रचनाओं में निबंध, लघु कथाएँ, कविताएँ और उपन्यास शामिल हैं, जो अखबारों और राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाओं, जरनल और संकलनों में छप चुकी हैं। ओडिशा सरकार के वित्त विभाग में अफसर के तौर पर कार्यरत, वो अधिकांशतः जीवन, उसकी सुंदरता और गूढ़ता पर लिखते हैं, जो व्यापक रूप से प्रसंशित हैं।

 

और एक बार

सारी स्मृतियां विस्मृत हो जाने के बाद

तुम रहती हो पास पास

स्मृति की प्रचुरता बनकर...

सारे सूर्यों के बुझ जाने के बाद

तुम रहती हो पास पास

हज़ारों मशालें बनकर...

सारे प्राप्तियों के निःशेष होने के बाद

तुम रहती हो पास पास

मेरे शून्यता में पूर्णता बनकर...


साथी!

जानता नहीं मैं कितना अधिकारी

तुम्हारे निशर्त प्यार का

तुम्हारे निर्मल प्रेम का

तुम्हारे स्वच्छ सलिल हृदय का

तुम्हारे अविचलित मन का...


मेरा जीवन

तो है तुम्हारी पूर्णता की गाथा

तुम्हारा जीवन

मेरी अपूर्णता की फीकी पांडुलिपि...


अंजुली भर भर

खुदको खाली करने के बाद

अपने हृदय से बूँद-बूँद खून ढाल

और किसीके जीवन को सजाने के बाद

एक-एक कर सारे सपनों को

सौंप देने के बाद

तुम आज भी परिपूर्ण

मैं ही तो तुम्हारा स्वप्न

मैं ही तो तुम्हारी पूर्णता...


आँखों के आगे परिपूर्ण जीवन पात्र

अनेकों वसंत बीत जाने के बाद

अनेक ठंडी ओस भींगी रातों में

ऊष्मा भर देने के बाद

आज भी विगत यौवन में

तुम मेरी विदग्ध प्रेमिका

और मैं

तुम्हारा एकनिष्ठ प्रेमी...



और एक बार - 11


यहाँ वक़्त नीलाम होता है

मुट्ठीभर पैसों के लिए

वक़्त बंध जाता है

सम्पर्कों की रस्सी में

उसके साथ बंध जाते हैं

मन, विवेक और हृदय...


मेरे मीत!

यहाँ केवल नष्ट सावन की बौछार

उजड़े वसन्त का उच्छ्वास

व्यर्थ फागुन के फल्गु की धार

और

झुलसे पुष्प-वन की दीर्घस्वास...


कुछ तृप्ति, कुछ प्राप्ति के लिए

यहाँ बलि चढ़ती निजता

और सर्वस्व खोने के बाद

मन खोजे है

थोड़ा खुला आकाश,

एक झोंका हवा,

स्यामल पत्तों की हरियाली

और प्रचुर्यता में खोए हुए 

अस्तित्व की स्तिथि

आधी गीली स्मृतियों के रेत में...


पँख फड़फड़ाते हैं,

पिंजरा काट काट

चोंच लहूलुहान होता है

अंधेरे कारागार में

सपने जीवित हो जाते

फिर से, मर कर गुम हो जाने को...


मेरे मीत!

जाने कितने दूर मैं

और मेरे सपने

हिना, केतकी की खुश्बू

मेरे माँ की पोइ पत्ते, लौकी-डाँठ की पृथ्वी

प्रेम और पूर्णता का

सम्पूर्ण सँभार...




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