सर्दी का मौसम आपने चरम पर है। पतझड़ बीत रही है। पतझड़ में ना जाने क्यों कभी कभी मन उदास सा हो जाता है, एकेलापन महसूस होने लगता है। बहुत ही सर्द दिन है पर हल्की हल्की धूप दिन के अस्तित्व को सहला रही है जैसे मन में पनप रहे मार्मिक ज़ख्म भरे जा रहे हों। मैं अपनी बाइक लेकर निकल पड़ा, मैंने मन बना लिया कि पतझड़ के दरख्तों से मिलूंगा उनसे बात करूंगा और उनके कुछ फोटोग्राफ लूंगा।
वैसे मैं बन में कठोर तपस्या कर रहा वो रिखीवर नहीं जो दरख्तों की भाषा जान लेता है। लेकिन ये हर हाल आपके हावभाव समझते हैं Sunday, February 3, 2019
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रीतू कलसी की कुछ कविताएं
हम और तुम भले चाहें युद्ध न हों पर युद्ध होंगे और मरना किसे इस युद्ध में यकीनन हमको तुमको नेता आए,नेता गए दर्ज हुआ युद्ध इतिहास मे तो ...

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सेंटियागो में आंखे ( ला चेस्कोना में) यहां हर तरफ आखें हैं चुफेरे हैं आखों के बने चिन्ह किसी सख्त प्रेमी की दबंग आखें अंदर कमरे से घूर रही...
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अम्बिका दत्त जी का काव्य –संग्रह ’नादान आदमी का सच ’ पढ़ते ही ताज़ी हवा के झोंके की छुअन सी महसूस होती है। हिंदी और राजस्थानी में उनके नौ पु...