Sunday, March 4, 2018

कविताएँ--सुरभी आनंद


          दुर्ग जा रही है
  
        कलरव ध्वनियों ने गूँज उठाया 
        जगत जीव द्वंद बनाने का 
        हवन की खुशबू तेरी ओर से आई 
        मुझे अनुभव जगाने का 

        कहीं चावल कहीं गुग्गुल कहीं पुष्प 
        सब बिखरे हैं तेरे विलाप में 
        कंर्दन की आवाज सुन 
        मेरी भाव भंगिमाएं चीख पड़ी 
        तू जा रही है ;विस्मयताद्ध

        आज ज्योत की आजमाइशें 

        तेरे मुखड़े पे न चमकीं 
        अँधरियाएँ तेल की बानगी में 
        वो दम लें सिसकीं 

        उज्जवलित पुष्प भी तेरी छटा में 
        वो सुगंध न बिखेर सकीं 
        पल्लव जल भी तेरी अदा में 
        वो तर्पण न मुस्करा सकीं 

        तू जा रही है स्पंदन स्पृश को 
        मातम तन्मयता दिखाकर 
        तात्विक परिभाषा को मुर्ख बनाकर 
        सूचीभेद शेष को अनहद नाद सुनाकर 

        तेरे जाने से
        ब्रह्मांड जीव अब मनहर निनादित न होगा
        संपूर्ण जगत का सृजन न होगा 

        तेरे कदम ने हमारे कदमों पर 
        मृत चित्त छाप छोड़ दिया 
        हे स्पृंदाए हे विलक्षणाए हे दुर्गावासिनी 
        तुमने तो हमें प्रतीक्षारत कर दिया !
      

दहेज़ी दुल्हन बेटियाँ

       मैं परदेश हो गई 
      अपने ही देश में मैं विदेश हो गई 
      बेटियाँ आखिर होती है क्या 
     जो खुद ही घर की मैं क्लेश हो गई  !

     मेरे बापू को हर चौखट 
     पगड़ी रखनी पड़ती हैं 
     मैं लड़की मेरे बाप होने का 
     दंश उसको भी झेलनी पड़ती है  !

     क्यों बेटी होने पर
    हर संस्कार उसके ही म्यान सजता है 
    बेटी होने का दर्द 
   आखिर वस्त्र बदलकर पुरा करना पड़ता है !

    अञानी बनाकर पहले उसे 
    अञान होने का प्रमाण दिया जाता है 
    चूल्हे की जलती लकड़ी से 
    बेटियों को अपराध बोध करारा जाता है !

    बेटियाँ अपने घर की गुड़ियॉ छोड़कर 
    उन्हें गुड़ियॉ देने आती है
    फिर भीए ससुराल का ताना बाना तो सुनिए 
    उन्हें गुड़ियॉ छोड़ गुड्डे पे मोह आ जाती है !

     मैं समझ गई  मुझे खरीदा जा रहा
     मैं ष्चीजश् मेरी कोई ख्वाहिश नहीं 
     मुझे एक हाथ से दुसरे हाथ बेचा जा रहा !

     शायद मैं अंतिम साँस की लड़ी तक 
     दहेज गुत्थी ही सुलझाऊँ 
     क्या पाप किया था बेटी जात ने 
     जो खुद की बेटी के लिए भी मै 
     दहेज ही फिर से जुटाऊँ !!

    
झूठा शक्ल

     ऐ जिस्म है तो क्या हुआ 
     ऐ तो रूह का आवरण है
     ऐ आवरण है तो क्या हुआ 
     ऐ तो निगाहो की बानगी है !

     ऐ जिस्म तू तो बड़ा जिस्मफरोश है
     तेरे ही चलते रूह तो अवशेष है 
     तू किस गर्भ गृह पर है
     तू क्या जाने
     जैसे स्त्रियों के अस्तित्व पर
     हैं पुरूष पैर पँसारे !

     यहीं दुनिया यहीं माया है 
     सब एक के एक ऊपर 
     अपना वजूद सिमटाया है !

     तेरे इस लेप से 
     हर इक को जाना जाएगा 
     शादी करते वक्त 
     काला गोरा जरूर देखा जाएगा !

     ना जानता था रूह 
     उसका रूप ऐसा होगा 
    खुद उज्जवल है तो क्या हुआए 
    उसकी कालिख काला होगा !

    ऐ जिस्म बेचारगी कर 
    इस मासूमियत पर 
    खुद छिपा है अपने रूप को 
    तेरा यौवन देकर !

    तुझी को सँवारने मे 
    झुठला गए हैं हम अक्ल 
    झूठ की माला पहनते.पहनते 
    सच्चाईयों को पहना गए हैं तेरा शक्ल !

    तू रूक तू इतना मत अकड़ 
    तू इक दिन झुक जाएगा 
    नहीं जानता तू दुनिया के दस्तूर को 
    कल का रूप जरूर निखर आएगा !!
                                                                 सुरभी आनंद
                       ईमेल आई-डीchinkisurbhi10@gmail.com
                                                    यह आगामी प्रिंट अंक मे भी छापी जाएँगी

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