चन्द्रेखा ढडवाल जी की काव्य पुस्तक 'ज़रूरत भर सुविधा'मु झे अमृतसर में रह रही हिमाचल मूल की कवित्री सुजाता जी से प्राप्त हुई। यह पुस्तक मुझे देते हुए उन्होंने इसे पढ़ने के लिए भी कहा। लेकिन और झमेलों ने मुझे ऐसा उलझाया की लगभग दो महीने यह पुस्तक मेरे ट्रैवल बैग में पड़ी मेरे साथ-साथ सफ़र करती रही।फर मैने इस पुस्तक को पढ़ना शुरू किया तो एक एक कर सारी कविताएं पढ़ डाली। मैने इस पुस्तक के सरवर्क को काफी देर निहारा लेकिन मुझे इसकी समझ नहीं आई। लेकिन एक बात मेरी समझ में आ गई की सूक्ष्म कला बारीक बुद्धि वालों के लिए है। इसमें कुछ कटे हुए पेड़ों के तने दिखाई दे रहे हैं। एक कटे हुए पेड़ के तने पर एक हाथ की आकृति दिखाई दे रही है। शायद यह संकेत करता है की हम सिर्फ प्रकृति पर परिहार नहीं कर रहे बल्कि इंसान खुद अपनी जड़ें काट रहा है। प्रतिरोध तो प्रकृति लेगी। सरवर्क के अर्थ और भी हो सकते हैं। फैली कविता पेड़ सुनों भी इसी और इशारा करती है:
किन्हीं पलों विशेष में
हो नहीं सकते ऐसे वायवी
कि तुम्हारे आर पार होती