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Saturday, March 16, 2024

'नादान आदमी का सच ’ हमारा तुम्हारा सच - सुजाता


अम्बिका दत्त जी का काव्य –संग्रह ’नादान आदमी का सच ’ पढ़ते ही ताज़ी हवा के झोंके की छुअन सी महसूस होती है। हिंदी और राजस्थानी में उनके नौ पुस्तक–संग्रह (ख़ास तौर पर कविताएं) प्रकाशित हो चुके हैं और वे अनेक पुरस्कारों से सम्मानित हो चुके हैं।’नादान आदमी का सच ’ उनका दसवां काव्य –संग्रह जीवन की विविधता  व नवीनता लिए हमारे समक्ष है।

’ प्रार्थना के लिए प्रार्थना ’ संग्रह की पहली कविता है। एक संवेदनशील व्यक्ति होने के नाते कवि कामना करता है कि लोभ, लिप्सा, मद –मोह, अभिमान और दिखावे से बच कर प्रार्थना जीवन में सहज –शुभ कर्म 

बन कर उभरे।


अम्बिका दत्त जी की कविताओं में गज़ब की सादगी है तथा चिंता भी कि इन दिनों शरीफ़ लोग कितने निरीह व

अकेले हैं। ’उम्मीद और मुश्किलें ’ में उनकी सोच कवि के लिए है। लोग उम्मीद करते हैं कि कवि हर ज़रूरत, हर मांग और जुल्मों के खिलाफ़ कविता लिखे।लेकिन कवि की उम्मीदों और मुश्किलों के बारे में समीक्षक क्या कभी जान सकेंगे?

 ’नादान आदमी का सच ’ संग्रह की बेहद प्रभावशाली कविता है–एक नादान आदमी अपनी ज़रूरत के लिए / कोई खाई नहीं खोदता / कोई दीवार नहीं उठाता / कोई जंगल नहीं जलाता / वह आता है–रहता है –और चला जाता है , इस तरह जैसे था ही नहीं। यह नादान आदमी आम आदमी है। उसकी स्थिति क्या है? अहमियत क्या है? समाज में उसकी भूमिका क्या है? जैसे अनेक सवाल कवि ने उठाए हैं। कवि कभी स्मृतियों में विचरता है,तो कभी विचारों में कविताओं के ताने बाने बुनता है।’उम्मीद ’ कविता की सादगी दिल को छूती है–

बेशक तुम्हारी उम्मीद थी मैं आग हो जाऊं / पर मैं हवा हुआ / मैं पानी हो गया / आखिरकार मिट्टी हो गया। मिट्टी होने का मतलब? कभी मौका मिले तो हो कर देखना। कवि अपनी ज़मीन से जुड़े रहना चाहता है।


स्त्री के प्रति संवेदना उनकी ’एक कहानी और एक कविता ’ में झलकती है। स्त्री–पुरुष में समानता ही स्वस्थ समाज की नींव है । ऐसे में औरत को कमज़ोर न बन कर समर्थ और जागरूक बनना है । 

’ मां के चले जाने पर ’  कविता के धरातल पर बहुत गहरे उतर जाती है–

मैंने स्वप्न में देखा / मां को गठरी लिए प्लेटफॉर्म की बेंच पर बैठे हुए / ट्रेन कब आई / मां किस डिब्बे में 

चढ़ी / पता ही न चला।


मां पर अनगिनत कविताएं लिखी गई हैं,लेकिन इन में नयापन है, दर्द यादों में लिपट अपने ही अंदाज़ में शब्दों का जामा पहन सामने आता है–

मां अब एक खुशबूदार धुआं हो गई / वह अब हवा में है / हमेशा हमारे चारों तरफ़ / जब कभी भी यादों की अगरबत्ती जलाएंगे / वो बातों में महकने लगेगी।

सच तो यह है कि मां कहीं जाती नहीं, छिप जाती है।

वह कभी अतीत नहीं होती।


इसी तरह एक और कविता सामने आती है ’दीवारें ’ दीवारें उठती हैं,कभी दृश्य कभी अदृश्य और लोग दब कर मर रहे हैं।

आड़ या रुकावट ही नहीं होती हर बार / भरोसा भी होती है कभी दीवार/जिसके साए में बैठ सकता  है कोई तेज़ धूप या बारिश में। दीवार पर लिखी इबारतें बरसों बनी रहती हैं। नारे लगाता जुलूस गुजर जाता है, तो उनकी गूंज से थरथराती रहती हैं दीवारें।


जल संकट जैसी समस्या को भी कवि ने छुआ है। वह जल देवता को संबोधित करते हुए कहता है कि आप यहां निवास करते हैं तो अतिशीघ्र यहां से चले जाएं। यह स्थान इतना गन्दा है कि साधारण मनुष्य तक का खड़े रहना मुश्किल है।


समीक्षा की दृष्टि से देखें तो संग्रह के अंत की कविताएं सपाट सी लगती हैं और कम प्रभावशाली हैं।


अंतिम कविता ’ विलंबित शुभकामनाएं ’ में कवि शुभ कामनाओं के पंख लगा कर फिर से अपनी रचनात्मक प्रतिभा का परिचय देता है–

दिखे कहीं जो झलक किसी वसन वासना की / समृति गंध किसी उपवन से / होऊंगा वहीं –कहीं मैं–ठहरा ठिठका सदा सर्वदा जैसा!

उनकी कविताओं और उनकी शुभकामनाओं का स्वागत है! उन में हमारा सच भी है व तुम्हारा भी।


सुजाता, अमृतसर
9888569778





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