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Monday, May 14, 2018

कविताएं - सुजाता


समय के तेवर और तस्वीरें

कितनी ही तस्वीरें हैं
घर में बिखरी हुई
एलबमों में बंद
दीवारों पर टंगी
कैद कुछ चौखटों, अलमारियों, दराजों में
धीमे-धीमे सांस लेतीं
बहुत कम हैं
आँखों की चमक बरकरार जिनमें
अधिकतर तो धुंधला गयीं
सपनों के झुरमुटे में



यथार्थ की चकाचौंध में
शेष - रुकी रुकी सी - इन्तजार में
माँ पिता-बहन तस्वीरों से निकल
अक्सर बातें करते
हाल-चाल पूछते
पिता की हिम्मत, माँ का धैर्य,
बहन का दुलार
झांकता आँखों से
तस्वीरें कहतीं तो बहुत कुछ
पर सीखनी होगी उनकी भाषा
सीखनी होगी हिम्मत पिता की
धैर्य माँ का
बहन का निःस्वार्थ प्यार
तस्वीरों की धूल झाड़ना
और उनकी आँखों में आँखें डालकर
वार्तालाप करना
सीखना होगा अभी.....
बहुत सी तस्वीरें हैं
माँ-बाप
भाई-बहन
घर-परिवार, दोस्तों की
जब भी एलबम खोल बैठती देखने
एक आधा तस्वीर गायब पाती हूँ
हैरत होती है
कहां गयी
जबकि दी नहीं किसी को
कौन ले गया निकाल कर
रह जाती सोचती
मन मन उलझती
तस्वीरों की गिनती करती
कितनी खाली जगहें बन गयी हैं एलबम में
निशान जिनके बाकी हैं
यहां कुछ और तस्वीरें चिपकाऊँ
या यूं ही रहने दूं
बस देखती रहूं
तस्वीरों को विदा होते.....
शहर के लोग
फ्रेम बंद तस्वीरों में बदल
टंग गए हैं दीवारों पर
तस्वीरें मुस्कुराती हैं
भावनाएं दर्शाती हैं


लोग चुप

लोग चुप
तस्वीरें बोलती हैं
भेद खोलती हैं
लोग ढूंढ रहे तस्वीरों में
घरों से गायब होते बच्चे
सन्दूकों में बंद रिश्ते
भोला बचपन, अल्हड़ जवानी
अपने गुमशुदा चेहरे
एक अर्थ, नई परिभाषाएं
इन्सानियत के सिक्के
जीने के नए तेवर
आँखों के तहखानों में
छुपा बहुत कुछ
यह तस्वीरों का शहर है
लोग नीलाम हो रहे हैं।


बरसों बाद 
एक पुरानी दोस्त से मिलने पर

एक बार फिर से जाना
कि धरती गोल है
बरसों के अन्तराल को पाटना
दोस्ती के पानी में देर तक नहाना
अच्छा लगा
दोस्ती के पेड़ से मीठे-मीठे फल तोड़ खाना
अच्छा लगा.....
देखा बरसों बाद
दोस्ती के परिन्दे को
खुले आकाश में उडारी भरते
एक सरस गीत जो इकट्ठे गाया
आज भी गूंजता है सांस-लहरियों में.....
ज़िंदगी की तपती ज़मीन है
दोस्ती की सौंधी गन्ध है
साँसों में घुल जाने दें
उतर जाने दें भीतर
आने वाले
एक बार फिर के लिए।


उम्मीद

कितने ही दरवाजे़ हों बंद
उम्मीद की एक न एक खिड़की खुलती है
उम्मीद जो पृथ्वी से भारी है
आकाश से हल्की
बना लेती अपनी जगह
कहीं न कहीं
इसी उम्मीद के तकिए पर सिर रख
सो जाते हम
ज़िंदगी की अधेड़बुन से थके-हारे
नयी सुबह की उम्मीद लिए।
सुजाता 
अमृतसर

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